बारिश और घर .........

वह याद है , गर्मी के बाद पहले बारिश में जब मिटटी बस भीग जाती थी , फिर एक सौंधी खुशबू आती थी 

वैसे खुशबू मर गयी क्या , क्या मर गया , मिटटी या बारिश....... 

बारिश यश चोपड़ा की पिक्चर्स की तरह ,  ख्वाब सी होती है .....

याद है ...वो फीलिंग कितनी गुदगुदा देने वाली होती है, बारिश के मौसम में पंखे की हलकी हवा में चादर ओढ़े बिस्तर पर लेटे हुए खिड़की से बारिश देखना। चादर से बस पैर बहार निकले हुए, ना बहुत गर्मी, ना ही सर्दी, और पैरों की उँगलियों के बीच से छू कर जाती हुई गुनगुनाती सी हवा। गीली मिट्टी की भीनी सी गुज़र जाती खुशबु, बरसते पानी का शोर, हरे नहाये हुए पत्तों का नाच, और यूँ ऐसे ही किसी पल में मैं खुद को अकेले में मुस्कराना .....तेज़ बारिश में भीग कर ठिठुर जाना, कभी बंद कमरे की घुटन में दिन गुज़ार देना......

कभी कभी कुछ दिन भी ऐसे होते हैं, कभी कुछ यादें भी ऐसी होती हैं, कभी कुछ लोग भी ऐसे होते हैं। कभी कुछ दिन गुज़रते नहीं गुज़रते, कभी कुछ यादें ऐसी ही किसी कफ़न सी लगती हैं, कभी कुछ रिश्ते भी एक गबन लगते हैं। मैं गलत , तुम सही ....... बात खत्म .......

ख्वाब में , कभी एक पहाड़ी की संकरी सी सड़क से नीच उतरते हुए , जब बारिश अचानक तेज़ होने लगती है , और आप अपने आप को सिर्फ भीगा देना चाहते हैं , उस संगीत से जो सीधे आत्मा से बात करता है, ……

अचानक लगने लगता है , बड़ी बड़ी बातें, बड़े बड़े घर , बड़ी बड़ी नौकरियां , इन् सबने मिल कर छुपा दी है , छोटी……… पर गहरी खुशियां ....... 

हम सब कहीं न कहीं फँसे हुए हैं,

कभी खुद में तो कभी खुद के टुकड़े में

किसी में फँसे छोड़ आये हैं।

सब लगे हुए हैं बस, 

कभी अलग करने ,

सुलझाने में, 

तो कभी लगे हैं और गुंजले बनाने में। 

जैसे हम सब इंसान नहीं,

धागों की रीलें हों और बाकी लोग हुक्स।

हम सब अपनी डोरों को उलझाये जाते हैं,

किसी ना किसी नई हुक में।

कभी कहीं से टूट गई डोर तो एक गाँठ और जोड़, 

फिर बड़ा लिया आगे अपने उलझे से नुमाइंदे को,

आगे निकल लिए किसी और सिरे में जा फँसने को।

कहाँ कहाँ तो फँस चुके हो,

कहाँ कहाँ से खरोंचे खा चुके हो, कितना लहूलुहान होना बाकी है.....

फिर भी बार बार जा क्यों फिर से खुद को यूँ फँसा लेते हो ?

ख्वामखा .....

पता है क्यों 

एक घर नहीं है 

कहीं रह गया था 

मैं सदियों से एक घर बनता आ रहा हूँ ,

कहाँ ? ठीक से पता नहीं, बस ख्यालों में है, वो भी अभी कुछ तय नहीं हो पाया है,

कैसा ? बस कुछ इमेजिस/प्रतिकृतियां हैं। 

कई कई बार उसकी नींव बोयी है अपने हाथों से,

कई कई बार उस तक पहुँचाती गलियों को विचारा है ,

बहुत बार उसकी दीवारों पर रंग सोचे हैं, सजाया है,

पर एक मकाम तक पहुँच सोच थम सी जाती है। 

कहीं सब पुराने सा हुआ तो ?

हर सावन के मौसम में बारिश से सिली हुई दीवारें ?

खुली बालकनी से आते सर्द हवा के झोंके ?

फिर लगता है घर हो, चाहे ख्वाबों सा नहीं। 

रोज़ शाम उस खुली बालकनी में,

सूरज के साथ अदरक वाली चाय  की चुस्कियां लेंगें,

मेज़ लगा, किताबों, अखबार , और बातों से भर देंगें,

हर सावन के बाद नए रंगों से फिर रंग देंगें दीवारेँ। 

गर्मी में स्विमिंग पूल बना देंगें उसे। 

घर पहुँच कर, तौलियों से जूझ कर , चाय के गिलास से सेक लेते हुए , बस यह याद …, जो आज तक याद है, खुशियाँ महंगी नहीं होती , वह उस पहाड़ की दूसरी तरफ रहती हैं , जिसे एहम कहते है.… 

वोह भारी, गहरी , ऊँची आवाज़ .......ओहो , यार सुनो तो , चाय में अदरक डालूं या रहने दूँ ? अरे तुम्हे पता तो है , अदरक नहीं , बस हलकी इलायची और चीनी कम , अच्छा सुनो चीनी रहने ही दो......

बस, एक घर हो जहाँ दौड़ ना लगाते हों,

ज़िन्दगी से, खुद से, हर राह चलते इंसान से,

थम जाना वो घर सिखाता हो,

बस एक घर हो जिसे खुद का कह सकें।

पर घर सिर्फ सोच से नहीं बनता, सब कहते हैं,

ईंट पथरों से बनता है,

मेहनत से बनता है,

परिवार से बनता है,

पैसों से बनता है,

एक ज़िन्दगी में बस एक घर मुश्किल से बनता है।

 इतना भागने के बावजूद , ना बारिश हाथ में आई , ना घर ही बना .......... 

आज का गाना। …अनकही।

क्या कभी सवेरा, लाता है अँधेरा
सूखी सियाही, देती है गवाही
सदियों पुरानी
ऐसी इक कहानी
रह गयी, रह गयी
अनकही...

क्या कभी बहार भी, पेशगी लाती है
आने वाले पतझड़ की
बारिशें नाराज़गी भी जता जाती है
कभी कभी अम्बर की
पत्तें जो शाखों से टूटे
बेवजह तो नहीं रूठे, हैं सभी

ख्वाबों का झरोंखा, सच था या धोखा
माथा सहला के, निंदिया चुराई
सदियों पुरानी
ऐसी इक कहानी
रह गयी, रह गयी
अनकही...

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