Jaane Kya Baat Hai .........

जाने क्या बात है , दुनिया समझ में नहीं आती !  इतनी बातें होती हैं , इतनी बातें सुनता हूँ , इतना कुछ लोग समझाते हैं , सवाल हैं के कम   ही नहीं  होते ! ज़िन्दगी का फलसफा तो यही  होना था ना , उम्र बढ़ती तो ज़िन्दगी  समझ आनी  चहिये थी , जवाब मुक़म्मल , सवालों की मिक़दार काम , लेकिन यह रोज़ सवाल बढ़ते ही जा रहे हैं , किताबें बढ़ गयी हैं, ग़लतफहमी है के  तजुर्बे भी बढ़ गए हैं  , इतनी लोगों की ज़िंदगियां करीब से  देख ली  , लेकिन फिर भी , नए लोग मिलते है , और गहरे , और छुपे हुए , इतनी  परतें होती हैं के  बस जब यह लगता है बस  देख लिया, जान लिया , इन्हें  समझ लिया , एक और परत मिल जाती है ! कैसे ढोते हैं इतनी परतें , हर उस शख्स जिसे में सोचता हूँ के जानता हूँ, उसके अंदर एक इंसान है जिसे मैं नहीं जानता ! मैं फिर किस  जुड़ा हूँ , उसकी अस्ल शख्सियत से या उस परछाईं जो उसकी दिखती है ! वक़्त के हिसाब से परछाईं भी बदलती है ! कोई साफ़ शफ़ाक़  क्यों नहीं होता ! क्या है इतना बदसूरत जो इतनी परतों में छुपाना पड़ता है। शहर में कभी नज़र घुमा कर देखो तो हर तरफ ऐड्वर्टाइज़्मन्टस के बड़े बड़े बोर्ड लगे रहते हैं। पर सबसे ज़यादा दिखने वाली फोटो जो इन इश्तेहारों  पर लगी रहती है वो हमेशा किसी एक परिवार की होती है। एक खुशहाल परिवार जिसका हिस्सा होंगें माता-पिता और एक बेटा और बेटी। कभी कभी अगर किसी ब्रांड को ज़यादा खुशहाली का नमूना पेश करना होता है तो वे उसमे एक दादा और दादी का भी फोटो लगा देते हैं। हर एक ऐसे कार, बीमा, फ़ोन, घर बेचते उस विज्ञापन में सब कितने खुश लगते हैं।कोई चीज़ हमें जितना ज़यादा बार दिखती है हम उसे ज़ाती  सच मान लेते हैं। बस मशहूरी है साहब परतों की ! परतें रोज़ दिखती हैं , इतनी ज़्यादा के बस , सच नहीं खूबसूरत परतों के लिए लोग जीते हैं ! 

 जाने क्या बात है ,  यह शोर क्यों बर्दाश्त नहीं होता , लोगो को लगता है गाडी के शीशे  चढ़ा लिए , कान में ईरफ़ोन लगा दिया , शोर गायब , पर कितना शोर है , किसी के फ़ोन पर मैसेजेस, कॉल्स की धुन और हेलो ट्यून्स का शोर, बेतरतीब , वाहियात गानो  का शोर , व्हाट्सएप्प के चुटकुलों और मुफ्त मशवरों  का शोर,फ़ोन शांत हो तो बातों का शोर, बेमतलब की बातों पर लड़ाई करने का शोर, टेलीविज़न का शोर, घूर के देखने वालों की नज़रों का शोर , चलती गाडी में  अपने आप से बातें करते लोगो का शोर , रंगे नाखून और पुते हुए सुर्ख होटों  का शोर,चाबियों का शोर,ज़ोर से हँसने का शोर, दरवाज़ों का शोर,घबरा जाने का शोर, सवालों का शोर,जो अभी नहीं पकड़ा गया उस झूठ का शोर,गुस्से से आँखें दिखाने का शोर,  ज़लील चाय पर होती बेसिरपैर की बातों का शोर, और यूँ इन सब के बीच कभी कभी ख़ामोशी का शोर। अगर यह शोर ना हो तो क्या ही इन शब्दों का भी शोर..... लोग कभी ज़मीर से बात करतें हैं क्या , उसमे शोर नहीं होता , वह सोने से पहले , नींद के इंतज़ार में जो लम्हें एक गायबाना सवाल जवाब करते हैं ना , वोह ! ज़मीर को इंग्लिश में क्या कहते हैं , हिंदी में,  मुझे पता नहीं !   पर अंदर कोई है के नहीं जो कहता हैं के सही किया , या गलत किया , आज या माज़ी में ,  आज फलां तारीख है , २ साल  हो गए , या उस आवाज़ को भी मज़बूत तर्क के शोर के नीचे दबा दिया , नहीं दबा पाए तो तीन पेग लगा लिए , फिर नींद नहीं आयी तो फेसबुक पे बाकी लोगो की ज़िन्दगी की प्लास्टिक तस्वीरें देख ली , कुछ प्लास्टिक पे पैसे खर्चे और अपनी भी प्लास्टक तस्वीरें लगा दी ! आज तुम जीत गया इस जंग में  , चलो अब सो जातें हैं , भाड़ के चूल्हे में गया ज़मीर , उसे भी खरीद लेंगे। भाई यह कौन लोग हैं , कई बार लगता है , कोई चाइना के बने नकली आईफोन की तरह यह भी कोई इन्साननुमा चींज़ें हैं क्या ! 

जाने क्या बात है , कुछ गुम है और कोई उसे ढूंढ भी नहीं रहा ,  मासूमियत नाम की एक चिड़िया होती थी  बहुत एहतराम करता था मैं उसका  !  इस चिड़िया का बोलबाला था , बच्चों में  दिखती थी , पर वो  तोह सब आईपैड  की औलाद हैं अब , बच्चे भी बूढ़े कर दिए हमने ! पंजाबी में एक कहावत सुनी थी , सबसे महँगी होती है मासूमियत ! सुना था , शोहरत, इल्म,  ताक़त  तो मिल भी जाती है  , मासूमियत  का एक नूर होता है जो बस किसी किसी को मिलता है ! ऐसे ही कभी दरिया गंज की पुरानी किताबों की मार्किट से मिर्ज़ा साहिबां की किताब  खरीदी थी , सोचता हूँ लोग तो अब अंदाजा भी नहीं लगा पाएंगे , के मिर्ज़ा क्यों जानते बूझते मारा  गया ! गुरदास मान ने  एक गाने में एक लाइन लिखी थी पिछले साल , १,५ करोड़ लोगो ने देखा, पर समझा  कितनो ने , अज्ज रांझे उधारी ले लें के हीरां , इश्के दी चादर करीं जान लीरां , होटल दे बेले व्हिच चूरी  ख्वा के , ऐ मझियां चरानी किधर जा रही ऐ ! सो कहानी ऐसी है के , रांझा बेचारा जब हीर से मिल नहीं पाता था तो जंगल में रहता था , मोहतरमा हीर , यानी की हीर सयाल , गायें भैसे चराने के बहाने उससे अपने हाथ से चूरी  खिलाती थी , सो मान साहब कह रहे थे के , अब हीरे  एक उधार क़े रांझे को होटल में ही मिल लेती हैं , बस हो गयी १२ घंटे की मोहब्बत , क्यों जान देनी , मसला बढ़ गया तो कोई ना , आईपिल का ज़माना है साहब , मैसेज डिलीट , फ़ोन लॉक , मसला ख़तम ! कई  बार सोचता हूँ , इस शहर में लोग गुफ्तगू  कैसे कर पाते हैं, फुरसत ही कहाँ है, जो इस शहर का होता है, या तो वो इस शहर से दिल लगा सकता है या किसी इंसान से, दो से एक साथ दिल्लगी तो नहीं हो सकती।  मासूमियत से तो साहब आप बारिश में भीग भी नहीं सकते , कहीं वह अज़ीज़ ऐ जान , लख्त ऐ जिगर , खबीज़ सेल फ़ोन ना भीग जाए , कुछ दिन पहले बहुत भीगा ,  १२ घंटे बारिश में , लगा मनीष ,  आज भी भीगने में उतना मज़ा है।  यह सेलफोन कुत्ते की ज़ंज़ीर टी तरह गले में टांग  लिया हम सबने , जान जाए पर  सेल फ़ोन ना जाए , आज अगर स्क्रीन लॉक और पिन नंबर की सहूलियत बंद कर दे , अदालते फट पड़ेंगी तलाक़ के मुद्दों से।  खैर बातें हैं साहब , वह मासूमियत  की चिड़िया कभी थी नहीं , एक आँख का दोखा  था , आँखें मसल के देख ली , ना चिड़िया थी ना कोई मासूमियत खरीद रहा है यहाँ !  सब तो लाखों में एक हैं बस हम ही हैं , एक पैसे के  सेर ! औकात में रहने की बुरी आदत है !

जाने क्या बात है , कुछ भूलता नहीं ! मुझे भूलता क्यों नहीं, मैं इतना सब याद क्यों रख लेता हूँ ! और जो  याद रहना चाहिए , यो भूल जाता हूँ ! ध्यान से देखता नहीं शायद , सामने वाले के कपड़ों का रंग या बालों की लंबाई!  मैं जो जितना ज़यादा भूलना चाहता हूँ , उतना ही वक़्त कम और याद ज़यादा पड़ जाती है। मुझे क्यों याद रहती हैं बेमलताब की बातें, ऐसी तारीखें जिनका कोई वजूद नहीं किसी के भी ज़हन में, मुझे क्यों याद रहते हैं वो किस्से जो लोग कह कर कब के हँसी में उड़ा चूके ! मैं सच में नहीं याद रख सकता , सब किताबों के नाम, उन सब गानों के बोल, सब बिताये हुए दिन, वक़्त और जगहें। मैं इतना सब नहीं याद रख सकता  जो मुझे आज में जीने ना दे, उन पुराने ना भूल पाने वाले पन्नों को हवा के साथ भी पलटते नहीं ! भूलना बहुत ज़रूरी है , रोज़ यही  याद करता हूँ ! यह दिमाग में शिफ्ट डिलीट का बटन  क्यों नहीं होता , जैसे यह गाना , ३३ साल पहले आया था , लड़कपन में सुना था ,  ज़हन के दरारों में दफ़न हो गया है ..... जाने क्या बात है 


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