In Denial

New experiment with the pen and poetry ....Sep 15th , 2017

हवाओं से रोज़ एक जंग में हूँ , मेरा अपना कोई काफिला  नहीं है

मेरी तस्वीर अब क्या बनेगी , कैनवस पे मेरा एक निशाँ भी नहीं है


तुझसे अब कोई गिला नहीं है , किस्मत में मेरी यह सिला ही नहीं है

जीने की आरज़ू हमेशा से कम  थी , पर मरने का हौसला भी नहीं है


खुशबू का बटवारा हो चुका  , फूल लेकिन मेरा अभी खिला ही नहीं है

नए परिंदे को रोज़ उड़ना सिखाता हूँ मैं , जंगल में मेरा  घोसला नहीं है


कोई समझे तो हर्फ़ ऐ राज़ समझाऊं , किसी से ऐसा सिलसिला नहीं है

देखने में ज़ख्म गहरा हो सकता है , चंद छालों के अलावा कुछ भी नहीं है


बादल हूँ , बारिश की चाहत में हूँ , पर अपना दो गज़ आसमान भी नहीं है

फिर से बिछड़े कोई अपना तो जाने , अभी तो वह शख्स मिला ही नहीं है  

Comments

  1. Kya Dard hai....kya zikar hai....kya ehsaas hai....shikva bhi hai aur gila bhi nhi....Dard bhi hai par zakham ka ehsaas bhi nhi...Wah...

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